२३ जनवरी, १९५७

 

 अन्त

 

 ''मनुष्य और भगवान्के मिलनका हमेशा यह अर्थ होना चाहिये कि भगवान् मानव सत्ताको भेदकर उसमें समाविष्ट हो जायं और मनुष्य अपनेको भगवान्के अंदर निमग्न कर दे ।

 

 किंतु यह निमज्ज्जन आत्मविलय जैसी कोई चीज नहीं है । इस सब खोज, और आवेगकी, कष्ट और हर्षोन्मादकी परिणति निर्वाण नहीं है । यदि इसका अंत यही होता, तो यह लीला कभी शुरू ही न हुई होती ।

 

 दिव्य आनंद ही रहस्य है । विशुद्ध आनंदको जान लो और तुम भगवान्को जान जाओगे ।

 

 तो फिर इस सारी लीलाका आदि क्या था? वह सत् जिसने अपनेको एकमात्र सत्ताके आनंदके लिये बहुविध रूपोंमें व्यक्त करके असंख्य, कोटि-कोटि रूपोंमें डुबकी लगा दी जिससे वह अपनेको अनगिनत रूपोंमें पा सकें ।

 

और मध्य क्या है? विभेद, जो बहुविध एकत्वके प्रति जानेका यत्न करता ह, अज्ञान, जो नानारूप पूर्ण प्रकाशकी बाढकी ओर जानेका प्रयास कर रहा है, दुःख जो अकल्पनीय आनंद समाधि- का स्पर्श पानेके लिये घोर परिश्रम अनुभव कर रहा है । क्योंकि ये सारी चीजें अंधकारमय आकार और विकृत स्पंदन है ।

 

 और सारी वस्तुका अंत क्या है? जैसे मधु अपना और अपनी

 

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सारी बूंवोंका इकट्ठा स्वाद ले सके और उसकी सभी बुंदे एक- दूसरेका तथा प्रत्येक बूंद स्वयं संपूर्ण मधुकोशका स्वाद ले सके, इसी तरह परमेश्वरकी, मानवके अंतरात्माकी और इस विश्व- की परिसमाप्ति होनी चाहिये ।

 

 प्रेम प्रधान सुर है, आनंद संगीत है, शक्ति तान है, ज्ञान गायक है, और वह अनंत सर्वात्मा ही इसका रचयिता और श्रोता है । अभी हम लोग केवल प्रारंभिक बेसुर स्वरोंको ही जानते हैं । वे उतने ही भयंकर है जितनी उनकी स्वरसंगति महान् होगी; पर हम आनंदराशिके बहुमुखी संगीतको अवश्य पा लेंगे ।''

 

(विचार और झांकियां)

 

 मनुष्य विशुद्ध आनंदको कैसे जान सकता है?

 

 सबसे पहले, शुरू करनेके लिये व्यक्तिको ध्यानपूर्वक निरीक्षणद्वारा यह जान केना होगा कि कामना एवं कामनाओंकी तृप्ति एक ऐसा हलका और आनैश्चित सुरव प्रदान करते है जो मिएाइत्र, क्षणजीवी और एकदम असन्तोपदायक होता है । सामान्यतया यही पहला कदम होता है ।

 

          उसके बाद, यदि व्यक्ति समझदार हो तो उसे कामनाको पहचानना सीखना होगा और ऐसे किसी भी कामसे बचना होगा जो उसकी कामनाओंका सन्तुष्ट करे । मनुष्यको उन्हें सन्तुष्ट करनेका यत्न किये बगैर ट्रे धकेल देना चाहिये । और फिर इसका पहला नतीजा, ठीक उन्हीं प्रांरभिक पीग्णामोंमेसे एक होगा जिसे विद्वन् अपने उपदेशोंमें यों स्पष्ट किया हू कामनाको तुरन्त करनेकी अपेक्षा उसे जितने और उसका परित्यागकरने- मे भपारा रूपसे अधिक महान् आनन्द है । प्रत्येक सत्यनिष्ठ और दृढ- निश्चयी माधकको कुछ समय बाद, देर या सवेर, कभी-कभी बहुत ही जल्दी यह  होगा यह एक परम सगर्भ्य है, और कामनापर विजय प्राप्त करनेसे अनुभव होनेवाला आनन्द कामनाकी तृाएतसे प्राप्त हो सकनेवाली दाणजीवी और मिपइत सुखसे इतना अधिक ऊंचा होता है कि उससे दुमकी तुलना नहीं हो सकती । यह हुआ दूसरा कदम ।

 

        साधनाको निरन्तर जारी रखनेसे, स्वभावत: ही, बहुत थोड़े समयमें कामनाएं बहुत पीछे रह जायेगी और फिर वे तुम्हें तंग नहीं करेंगी । इस प्रकार तुम अपनी सत्ताके अन्दर थोडी अम्निक गहराईमें प्रवेश करनेके ' लिये स्वतंत्र हों जाओगे ओर अपनेको... आनन्ददाताके, दिव्यतत्वके, भाग-

 

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वत कृपाके प्रति अभीप्सा करते हुए उद्घाटित कर लोगे । और यदि ऐसा सच्चे आत्म-समर्पणके साथ किया जाय -- ऐसे भावके साय जो अपने- को अर्पित करता है, प्रदान करता है और अपने उत्सर्गके प्रतिदानके रूपमें किसी चीजकी आशा नन्हों करता -- तो व्यक्ति एक ऐसी मधुर, सुखद, अन्तरंग, ज्वलंत, स्नेहभरी ऊष्माका अनुभव करेगा जो हृदयको परिपूर्ण का देती है और दिव्य आनन्दकी अग्रदूत होती है ।

इसके बाद मार्ग सरल होता है ।

 

        मधुर मां, सत्ताका सच्चा 'आनंद' क्या है?

 

वही जिसके बारेमें में बता रही इ!

 

       उसके बाद, मधुर मां, यहां जब श्रीअर्रावंद एक ऐसी सत्ताकी बात कहते है : ''जिसने अपनेको मात्र अस्तित्वके आनंदक लिये नाना रूपोंमें व्यक्त किया,'' तो यह आनंद क्या है?

 

अस्तित्वमें रहनेका आनन्द ।

 

         एक ऐसा भी समय आता है जब व्यक्ति तैयार होने लगता है, जब प्रत्येक चीजमें, हरेक पदार्थमें, एक-एक क्रियामें, एक-एक स्पन्दनेमे, अपने चारों ओरकी सभी चीजोंमें -- केवल लोगों और सचेतन सत्ताओंमें ही नही बल्कि वस्तुओं एवं 'पदार्थोंमें, केवल पैड-पौधों और जीवित वस्तुओंमें ही नही किन्तु उपयोगमें आनेवाली किसी भी चीजमें, अपने चारों ओरपिरी वस्तुओ- मे -- इस आनन्दको, सत्ताके इस आनन्दको, केवल वही होनेके आनन्द- को जो व्यक्ति है, केवल होनेके आनन्दको अनुभव करता है । जोरु वह देखता है कि सब कुछ उसी रूपमें सम्बन्धित हों रहा है । किसी वस्तुको स्पर्श करते ही वह उस आनन्दका अनुभव करता है । पर मैं कहती इं कि स्वभावत: ही, मनुष्यको पहले उस साधनाका अम्यास का रैन लिये चाहिर्य जिसके संबंधमें मैंने प्रारंभमें कहा है, अन्यथा, जबतक व्यक्तिमे कामना पसंदगी, आसक्ति या अनुरक्ति एवं विरक्ति ओर यह सब होता है -दावत-त्र- वह आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता -- बिलकुल नही कर शकता ।

 

       और जबतक मनुष्यको किसी चीजमें सुख -- सुख, हा, किसी चीजमें प्राणिक और भौतिक सुख --मिलता है, तो वह हंस आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता । क्योंकि यह आनन्द सर्वत्र विद्युत है । यह आनद एक बहुत सूक्ष्म वस्तु है । वस्तुओंमें विचरण करते समय तुम्हें ऐसा लगता

 

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है मानों वे आपने आनन्दको तुम्हारे सामने गकार व्यक्त कर रहे हों । ऐसा भी समय आता है जब तुम अपने चारों ओरके जीवनमें इसके आदी हो जाती हो । स्वभावतया, मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि इस आनन्दको मानव सत्ताओंमें अनुभव करना थोड़ा अधिक कठिन है, क्योंकि उनमें पूरी बहुत-सी मानसिक और प्राणिक रचनाएं होती है जो प्रत्यक्ष प्रदर्शन क्षेत्रमें आती है और आनन्दको अस्त-व्यस्त कर देती है । उसमें इस तरहकी अहंकारपूर्ण कठोरता अधिक मात्रामें होती है जो अन्य वस्तुओंके साल भिथीत हों जाती है, इसलिये वहां आनन्दका स्पर्श पाना अधिक मुश्किल होता हैं । पर व्यक्ति पशुओंमें भी इस आनन्दका अनुभव कर सकता है; अभीतक यह रहनुमा पौन्गेंकी अपेक्षा उनमें जरा अधिक कठिनाईसे आता है । किंतु पौधोंमे, फुत्होंमे यह अनुभव बहुत अद्भुत होता है! वे अपने मारे आनन्दको मानों वाणी द्वारा व्यक्त करते है, बाह्य रूपमें प्रकट करते है और जैसा न्कि मैंने कहा, चेतनाकी एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें सभी पदार्थ, युक्तिके चारों ओरकी चीज़ें, उसके द्वारा प्रyउक्त चीजों, प्रत्येक अपने यथास्थिति रूपमे सुखी होती है । तो व्यक्ति इस प्रकार उस क्षण जान जाता है कि उसने सच्चे दिव्य आनन्दका स्पर्श पा लिया है । और: यह स्थिति किसी शर्तसे बंधी नहीं होती । मेरा आशय ह यह  नन्हा होती... यह किसी भी वस्तुपर आश्रित नहीं होती । यह वाद्य निर्भर नहीं करती, यह क्म या अधिक अनुकूल रर्गर्गस्थगिरं निर्भर नहीं करती किसी भी वस्तुपर निर्भर नहीं करती : बह म्लतत्वके साथ मिलनकी स्थिति है ।

 

           ओर -ताव यह अवस्था आती हू तो शरीरके सब कोषाणुओंमें व्याप्त हों ननि1 है । यह कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसके संबंधमें विचारा जाय - मनुप्य उस अवस्थाग्रे तर्क नहीं करता, विश्लेषण नहीं करता, ऐसा कुछ मी नहो होता : यह ऐसी स्थिति हे जिसमें मनुष्य केवल निवास करता खै । ओर जब शरीर इसमे हिस्सा लेता है तो यह इतना ताजा -- इतना ताजा, इतना सहज, इतना... कि उसके बाद मनुष्य अपनी ओर नहीं चौटता, उस,। अम्मी-निरीक्षणका, आत्म-विश्लेषणका या वस्तुओंके विश्लेषणका कोई .भाव नहीं रहता । यह सब मानों एक उल्लासभरे स्पन्दनोंका गीत बेन- जाता लौ परंतु बहुत, कहुत ही शांत, तीव्रतासे रहित, आवेग से रहित होता है, उसमें यह सब कुछ नहीं होता । यह बड़ा सूक्ष्म और साथ ही बहुत सघन होता हैं, और उसके आनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि सारा बिस्तर ही एक अभूत स्वरसंगति हैं । वह वस्तु भी जो सामान्य मानव चननाको भद्दा ओर अप्रीतिकर लगती है अब अद्भुत लगता' है ।

 

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    दुर्भाग्यवश, जैसा कि मैंने कहा, लोग, परिस्थितियां, ये सब उन मानसिक एवं प्राणिक रचनाओंके साथ सारे समय परेशान करते रहते है । और तब मनुष्य वस्तुओंके इस अज्ञान और अंधकारपूर्ण प्रत्यक बोलरकी. और लौटनेके लिये बाध्य हों जाता है । किंतु, इसके विपरीत, ज्यों ही वह सब समाप्त हो जाता है और व्यक्ति उसमेंसे बाहर निकलनेमें समर्थ हो जाता है... तो सब कुछ बदल जाता है । जैसे कि वे वहां अपने कथनके अंतमें कहते है : सब कुछ बदल जाता है । अद्भुत सामंजस्य होता है! सब कुछ दिव्य आनन्द, सच्चा 'आनंद', विशुद्ध 'आनन्द' वन जाता हैं।

 

    यह बात थोडी मेहनतकी मांग करती है ।

 

     और इस साधनाका जिसके संबंधमें मैंने कहा था और जो हमें करनी है, यदि आनन्द प्राप्तिको लक्ष्य बनाकर इसका अम्यास किया जाय नो फल देरसे प्राप्त होता है, क्योंकि बीचमें एक अहतापूर्ण तत्व घुस आता है, वह एक उद्देश्यको लेकर किया जाता है और समर्पण नही रह जाता, यह एक मांग बन जाता है और उसके बाद.. इसका फल मिलता खै ओर मिलेगा ही, चाहे इसमे' अधिक देर क्यों न लगे युक्ति जव किसी चीज- की मांग नहीं करता, किसी चीजकी अपेक्षा नही करता, आशा नही कर्ता और जब उसके साथ एक हों जाता है, अर्थात् आना-समर्पण कग्ना है, उसमें आत्म-समर्पणका, अभीप्साका भाव होता है और मौदेवाजीकी भावनाके बिना केवल सहज  दिव्य बननेकी इच्छा होती है, बम ।

 

 माताजी, आप इस ''मधु विद्रू"  समझायंगी?

 

 

ओह! मधु..., लेकिन, मेरे बच्चे, यह तो एक उपमा हैं ।

 

        श्रीअरविन्द कहते है ''यदि कोई कल्पना कर सकें.. '' केवल वुडिप्रधान भावनात्मक रूप देनेकी अपेक्षा अधिक ठोस रूपसे समझानेके लिये यह कहा गया है । वे कहते है उदाहरणके लिये यदि तुम ऐसे मधुकोश- की कल्पना कर सको, हां... ऐसे मधुकोशकी जिसमे अपनेको और साय' ही मधुकी प्रत्येक बूदको चखनेकी शक्ति हो; केवल अपनेको मधुके रूपमे चखनेकी ही नही बल्कि प्रत्येक बूंदमें अपने-आपको चलनेकी, मधुकोगर्का प्रत्येक बूंद हों जानेकी, और यदि इनमेंसे प्रत्येक बुध अन्य सबक़ों सके, अपनेको और अन्य सबको, और साथ ही यदि प्रत्येक बुध मानो स्वयं मधु- कोश बनकर उसका स्वाद ले सकें ।

 

         तो यह ऐसा मधुकोश होगा जौ स्वयं अपनेको चख सकेगा ओर मg- कोशकी सब बूंदोंका सर्वांग रूपसे स्वाद ले सकेगा, और प्रत्येक ब्रेद अपनेको

 

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तथा अलग-अलग बूंदोंको एव समग्र मधुकोशको, अपने रूपमें चख सकेगी .. यह बिलकुल ठीक उपमा है । इसमे। लिये केवल कल्पना-शक्तिकी आवश्यकता है!

 

       ऐसे तो मैं समझता हू । मैं पूछ यह रहा हू कि यह किसीका प्रतीक है?

 

मधु एक स्वादिप्ट वस्तु है, है न ' तो ये बूंदें दिव्य हर्षके आनन्द हैं । और अभी, जब मैं चीजोंके भीतर स्थित इस स्वयं स्फूर्त और सादे हर्ष- का याद कर रही थीं, उस हर्षको जो सब वस्तुओंके अन्तरमें निवास करता हैं, खैर,  वस्तुके लिये यह सचमुच ही कुछ चीज -- ओह! इसकी तुन्ग्नामे मधुका स्वाद अवश्य ही, बहुत भद्दा और निकृष्ट होता है - परन्तु हुपूंछ वैसा ही, बहुत स्वादिष्ट होता है । और यह बड़ा सरल, बहुत ही सरल और अपनी अकृत्रिमता पूर्ण होता हे समग्रतया अकृत्रिम होनेके साथ-साथ बहुत सरल भी होता है ।

 

        तुम जानते हो यह ऐसी वस्तु नहीं जिसपर सोच-विचार किया जाय, व्यक्तिमे इसका आह्वान करनेकी शक्ति होनी चाहिये, व्यक्तिमें थोडी-बहुत कल्पना-शक्ति होनी चाहिये । तो, यदि मनुष्यमें ऐसी क्षमता हो तो वह केवल पढ़कर ही कर सकता है, तब वह समझ सकता है । एक उपमा हूं, केवल एक उपमा है, किन्तु ऐसी उपमा है जिसमें सचमुच आहुंन करनेकी क्षमता है ।

 

        माताजी, प्रत्येक व्यक्ति मित्र-मित्र वस्तुकी करेगा, नहीं?

 

 स्पष्ट खै । किन्तु इस बातका कोई महत्व नहीं । उसके लिये वह ठीक होगी ।

 

 ( मैन)

 

बम ?

 

       मैं उन प्रशानोंको साय लायी थी मेरे सामने रखे गये थे, लेकिन मैं समझती हू कि हमें  पहले  ही थोडी देर हों गयी है ( माताजी प्रश्नोंपर नजर डालती है) ।

 

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        इनमेंसे एक प्रश्न अत्यन्त बौद्धिक है । इसे हम कमी और दिनके लिये छोड़ देते है । एक और भी है... जो मात्र- दिखावे के लिये किया गया है, और फिर तीसरा प्रश्न भी है, वह बड़ा रोचक है किन्तु इसका रंन्यौरे- वार जवाब देनेकी जरूरत है और आज हमें वैसे ही कुछ देर हो गयी है ।

 

        तथापि यह है एक अन्य प्रश्न जिसका जवाब बड़ी आसानीमे दिया जा सकता है, यह मेरे एक लेखमेंसे लिया गया हैं जिसमे कहा गया है :

 

        ''यह मान लेना एक भारी भूल होगी कि भागवत संकल्प जगत्में हमेशा प्रकट रूपमें काम करता है ।',

 

और फिर श्रीअरविन्दके 'योग समन्वय'में

 

 ''यदि हम सब जगह एकत्वको देखे, यदि हम यह पहचान लें कि सब कुछ भगवान्के संकल्पसे ही होता है... इत्यादि ।',

 

 और एक अन्य वस्तु मेरी पुस्तक 'प्रार्थना और ध्यान'मे

 

 ''प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक सत्तामें तू ही कर्त्ता है, और जो व्यक्ति तेरे इतने अधिक समीप है कि निरपवाद रूपसे, सब कर्मोंमें तेरा दर्शन कर सकता है, प्रत्येक कर्मको आशीर्वाद- मे बदलनेका रहस्य जान लेगा ।',

 

( दिसम्बर १०, १९१२)

 

 और इसलिये मुझसे पूछा गया है कि इन विरोगेंमें किस प्रकार मैल बैठाया जाय । किन्तु इनमें मुझे कोई विरोध नहीं दाहिना । क्योंकि पहले वाक्यमें कहा गया है : ''यह मान लेना एक भारी भूल होगी कि जगत्में भगवान संकल्प सदा खुले रूपमे काम करता है ।',. मैं कहूगी, ऐसा बहुत ही कम होता है जब वह प्रकट रूपमे काम करता हो । वह सदा कार्य करता है, किन्तु प्रकट रूपसे नही । और जब वह प्रकट द्वाग्से कार्य करता है तो उसे ही लोग ''चमत्कार'' कहते है । और ऐसा वरिष्ठ ही होता है । अधिकतर तो यह प्रकट रूपसे काम नहीं करता, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह काम नहीं करता । वह प्रकट रूपसे कार्य नहीं करता, बस इतना ही । इसलिये इसमे परस्पर विरोध नहीं है । बस, यही मेरा

 

आशय था । यह विरोध बिलकुल ऊपरी जो शब्दोंका अर्थ न समझने- के कारण हुआ हैं ।

 

         'भागवत संकल्प काय करना है, पर खुले रूपमें नहीं । जब वह खुले रूपमें काम करता हैं तो लोग उसे चमत्कार कहते है । बस इतना ही । लोकने यह उसे कार्य करनेसे नहीं रोकता ।

 

 

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